कन्या लग्न का फलादेश
कन्या लग्न लोगों को अपेक्षाकृत अपने आप में रहने वाले, विनम्र और मृदुभाषी होते हैं। वे ऐसे लोगों को दोस्त मानते हैं जो उन्हें सामाजिक ढांचे में ऊपर आने में मदद करते हैं। जब कोई बाधा से मुकाबला होता है तो वे संयमित रहते हैं और उसके समाधान के लिए तर्कसंगत उपाय में लग जाते हैं।
सूर्य
1. सूर्य द्वादशेश होने से अपनी स्थिति तथा बल के अनुकूल अच्छा या बुरा फल करेगा ।
2. यदि बलवान् हो तो सूर्य द्वादशेश हुआ भी शुभ फल देगा। मनुष्य व्ययशील होगा। यदि सूर्य निर्बल हो तो आंख में कष्ट होगा ।
3. यदि सूर्य तथा शुक्र का अथवा सूर्य तथा चन्द्र का युति आदि द्वारा संबंध हो, तो सूर्य अपनी दशा में धनी बनाता है ।
क्योंकि पाराशरीय नियमों के अनुसार द्वादश भाव का स्वामी उस ग्रह का फल करेगा, जिसके साथ वह स्थित होगा, अतः यहाँ सूर्य द्वादशेश होकर जव शुक्र से संबन्ध बनावेगा, तो द्वितीय भाव का शुभ आर्थिक फल देगा और जब चन्द्र से संबंधित होगा, तो भी लाभेश चन्द्र का शुभ धनप्रद फल करेगा ।
जब सूर्य युक्त शुक्र की दशा होगी, तो जातक के धन की हानि होगी और सूर्य युक्त चन्द्र की दशा में मिश्रित फल होगा ।
क्योंकि शुक्र एक पापी और शत्रु सूर्य द्वारा पीड़ित होने के कारण धन की हानि करेगा (द्वितीयेश होने से), परन्तु चन्द्र अपनी दशा में मिश्रित फल करेगा, क्योंकि यद्यपि सूर्य चन्द्र को भी पीड़ित करेगा, परन्तु उसका मित्र होने के कारण शुभ फल भी करेगा ।
कन्या लग्न में सूर्य महादशा का फल
यदि सूर्य बलवान हो और किसी अच्छे भाव में स्थित हो तो उस भावानुसार शुभ फल धनादि अपनी दशा भुक्ति में दिलवाता है। राज्य के रक्षा विभाग के बड़े आफिसरों से सम्पर्क स्थापित करता है । भोगों में वृद्धि करता है । व्यय शुभ दिशा में होता है । पूजा के स्थानों का तथा समुद्र आदि का दर्शन होता है।
सूर्य यदि निर्बल और पाप दृष्ट है तो अपनी दशा भुक्ति में अनुचित व्यय करवा देगा । इस अवधि में आंख में कष्ट रहेगा। राज्य के सेना विभाग के अधिकारियों से अनबन रहेगी । जातक को उस भाव सम्बन्धित बातों से हानि रहेगी जिसमें कि सूर्य स्थित हो । यदि शुक्र सहित सूर्य पर राहु, शनि का प्रभाव हो तो उस अवधि में जातक को निद्रा के अभाव की शिकायत (Insomnia) हो जावेगी । पुत्र को विशेष कष्ट होगा । पिता के सुख में हानि होगी ।
चन्द्र
1. चन्द्र बली होने की दशा में तथा शुक्र आदि धनद्योतक ग्रहों के संपर्क में शुभ फल देगा।
2. चन्द्र का एकादशेश होना जतलाता है कि यदि चन्द्र बली हो तो मनुष्य को बहुत धन का लाभ होता है, व्यक्ति की बड़ी बहिनों की संख्या अधिक होती है, क्योंकि एकादश स्थान बड़े भाई-बहनों का है और चंद्र स्त्री ग्रह है । चन्द्र का एकादशेश होना यह भी बतलाता है कि मनुष्य महत्वाकांक्षी है । हां, चन्द्र बलवान् अवश्य होना चाहिए ।
3. निर्बल चन्द्र बड़ी बहिनों का नाश करता है।
4. चन्द्र और शुक्र सप्तम भाव में हो, गुरु एकादश में हो और सूर्य अष्टम में, तो जातक को गुरु तथा शुक्र की दशा में चार अथवा पाँच जीवित पत्नियों की प्राप्ति होगी । ऐसा व्यक्ति उच्च-स्तरीय स्त्रियों से संबन्धित होगा।
क्योंकि सप्तम स्थान में सम (Even) राशि में (जोकि स्त्री राशि है) दो स्त्री ग्रह शुक्र और चन्द्र स्थित हैं, इसलिए सप्तमेश स्त्री बाहुल्य का प्रतिनिधि होने के नाते ही स्त्री बन गया और फिर प्राप्ति (एकादश) स्थान में उसकी स्त्री राशि स्थिति उन स्त्रियों की संख्या में वृद्धि करती है । पुनश्च गुरु उसी सप्तम भाव को देखते हुए उस पर वही स्त्री प्रभाव डालता है ।
इस प्रकार बहुत स्त्री ग्रहों का सप्तम और लाभ भाव से संबन्ध होने के कारण एक ही समय में बहुत स्त्रियों की प्राप्ति युक्तियुक्त है । लाभेश और सप्तमेश का व्यत्ययः (Exchange) भी स्त्री बाहुल्य एक कारण है । गुरु इसलिये भी स्त्री है कि वह दो स्त्री भावों अर्थात् चतुर्थ (माता) और सप्तम (जाया) का स्वामी है।

कन्या लग्न में चन्द्र महादशा का फल
यदि चन्द्रमा बलवान हो तो उसको विशेष धन की प्राप्ति होती है । स्त्री वर्ग से उसे लाभ इसा की दशा भुक्ति में रहता है । जातक का मन शुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त रहता है । उसको बड़े भाइयों-बहनों तथा मित्रों से इस अवधि में सहायता मिलती है। छोटे भाई के भाग्य में वृद्धि होती है । पुत्री को पति प्राप्त होता है अथवा उसके पति की उन्नति होती है । यदि चन्द्रमा शुक्र से युक्त हो तो बहुत धन इस अवधि में आता है।
यदि चन्द्रमा क्षीण हो और उस पर पापी ग्रहों का प्रभाव हो तो धन की आय कम हो जाती है । स्त्री वर्ग से जातक को इस चन्द्रमा की दशा भुक्ति में हानि उठानी पड़ती है । मन में दुःख की अनुभूति होती है । जिस भाव में चन्द्रमा की स्थिति हो उसका विरोध जातक जान-बूझकर करता है। अतः इस दशा में उस भाव से हानि उठानी पड़ती है । यह समय माता के स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से हानिप्रद है । पुत्रों को इस समय रोग रहता है।
मंगल
1. मंगल तृतीय तथा अष्टम दो पापी स्थानों का स्वामी होने से अतीव पापी और अशुभ है ।
2. मंगल अष्टमाधिपति तथा तृतीयाधिपति बनता है। दोनों आयु के स्थान हैं, अतः यदि मंगल बलवान् हो तो आयु दीर्घ होती है; मंगल पर तथा अष्टम भाव पर पड़ा हुआ प्रभाव मृत्यु के कारणों को बतलाता है।
3. परन्तु बलवान् मंगल बहुत थोड़ा धन देता है; क्योंकि यह दो अशुभ घरों का स्वामी होता है ।
4. मिथुन राशि का दशम भाव में स्थित मंगल अपनी दशा अन्तर्दशा में शुभ फल करता है, कारण कि वह अपनी एक राशि मेष से तृतीय तथा दूसरी वृश्चिक से अष्टम होकर बुरे भावों की बुराई को दूर कर देता है ।
5. दशम भाव में मिथुन में स्थित मंगल यौवन अवस्था में व्यसन देता है तथा हिंसा के कार्य करवाता है।
कन्या लग्न में मंगल महादशा का फल
यदि मंगल बलवान हो तो मनुष्य इस ग्रह की दशा भुक्ति में दरिद्रता को देखता है। यद्यपि ऐसे व्यक्ति के पास कई आविष्कार होते हैं, पर वह दरिद्र रहता है। ऐसे व्यक्ति को इस अवधि में जुए आदि का व्यसन लग जाता है ।
यदि मंगल अष्टमेश होता हुआ निर्बल और पाप दृष्ट पाप युक्त हो तो अपनी दशा भुक्ति में बहुत धन देता है। जातक अपने कुछ एक कार्यों के कारण अपयश प्राप्त करता है। मित्रों के कारण भी उसे इस अवधि में अपयश मिलता है ।
यदि अष्टमेश मंगल दशम भाव में मिथुन राशि में पाप दृष्ट हो तो उसकी दरिद्रता काफी हद तक कट जाती है क्योंकि मंगल बुरे भावों का स्वामी होकर अपनी दोनों राशियों से बुरे स्थानों (तृतीय और अष्टम) में होता है । अतः शुभ फल करता है । ऐसे केन्द्रस्थ मंगल को बलवान नहीं समझना चाहिए।
बुध
1. बुध लग्नेश-दशमेश (केन्द्र तथा त्रिकोण दोनों का स्वामी) होने से राजयोग कारक एवं अतीव शुभ गिना जायेगा।

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2. इस लग्न में उत्पन्न होने वाले व्यक्ति यदि उनका बुध बलवान हो तो बहुत बुद्धिमान्, मानी, लावण्य युक्त, सुन्दर आकृति वाले, गुणी, गाने बजाने के इच्छुक होते हैं।
यदि बुध बलवान् हो तो अपनी दशा में अचानक राज्यपद की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, यश की प्राप्ति आदि देता है, शुभ कर्मों में प्रवृत्त करवाता है । बलवान् बुध पिता के धन की शीघ्र वृद्धि करने वाला होता है ।
3. यदि बुध निर्बल हो तो जातक पेट तथा अन्तड़ियों के रोग से युक्त, चर्म रोग से युक्त, बचपन में कष्ट उठाने वाले तथा अपमानित होने वाले होते हैं।
कन्या लग्न में बुध महादशा का फल
यदि बुध बलवान हो तो इस अवधि में जातक अधिक मान को प्राप्त करता है, विशेषतया तब जबकि बुध सूर्य से युक्त होकर बलवान हो और शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो ।
यदि बुध निर्बल और पाप दृष्ट हो तो बुद्धि की हानि करता और अपनी दशा भुक्ति में जातक को मस्तिष्क के रोगों जैसे (Meningitis) पागलपन इत्यादि में ग्रस्त किये रखता है। इस अवधि में जातक के मान को हानि होती है और उसके धन का नाश भी होता है। इस समय जातक को किसी चर्म रोग का शिकार भी होना पड़ता है । उसकी अन्तड़ियों में कष्ट रहता है।
गुरु
1. गुरु चतुर्थेश तथा सप्तमेश बनता है। अतः मन को ज्ञानी तथा गौरवमय बनाता है।
2. गुरु बलवान हो तो मनुष्य बहुत सुखी तथा धनी होता है क्योंकि गुरु जहां सुख स्थान का स्वामी है वहां सुख का कारक भी है और चतुर्थ से चतुर्थ का भी स्वामी है। उसको वाहन की प्राप्ति, भूमि आदि का सुख तथा अन्य प्रकार से जीवन में बहुत सुखी रहता है।
3. गुरु यदि बलवान हो तो माता को दीर्घायु देता है।
4. निर्बल गुरु केन्द्राधिपत्य दोष उत्पन्न करता है और अपनी भुक्ति में रोग देता है और मनुष्य के जीवन में दुःख को ला खड़ा करता है । निर्बल गुरु अष्टम द्वादश, द्वितीय, षष्ठ आदि अशुभ भावों में स्थित हो तो अपनी भुक्ति में महान् रोग देता है।
5. स्त्री की कुण्डली में गुरु विशेष विचारणीय होता है, गुरु पर मंगल का प्रभाव पति का घातक तथा शनि, सूर्य, राहु आदि का प्रभाव पृथकता लाने वाला होता है।
6. यदि गुरु और शुक्र धनु राशि में चतुर्थ भाव में स्थित हों, तो गुरु और शुक्र अपनी दशा काल में शुभ फल करते हैं । क्योंकि शुक्र कन्या लग्न के लिये शुभ भी है और त्रिकोण का स्वामी भी । इसकी केन्द्रेश गुरु से युति राजयोग उत्पन्न करेगी।
कन्या लग्न में गुरु महादशा का फल
यदि गुरु बलवान हो तो गुरु की दशा भुक्ति में सुख की मात्रा असाधारण रूप में प्राप्त होती है । वाहन का सुख रहता है विशेषतया जब गुरु के साथ शुक्र हो । व्यापार में वृद्धि रहती है । यदि स्त्री की जन्मकुण्डली हो तो इस अवधि में उसके पति को विशेष मान की प्राप्ति होती है । इस अवधि में सम्बन्धी विशेष रूप से सहायक होते हैं ।
यदि गुरु निर्बल और पीड़ित हो तो वह अपनी दशा भुक्ति में सुख का नाश करता है । उस अवधि में जातक को घर के सुख से दूर रहना पड़ता है । सम्बन्धियों से उनकी कलह चलती है । जनता में से कोई शत्रु उत्पन्न हो जाता है । जमीन, जायदाद खरीदी नहीं जा सकती ।
शुक्र
1. शुक्र अतीव शुभ है ।
2. शुक्र द्वितीय भाव और नवम भाव का स्वामी होने से जातक को धन और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। अतः शुक्र यदि बलवान् हो तो अपनी भुक्ति में खूब धन देगा । अतः ऐसा व्यक्ति अचानक धन से लाभ उठा जाता है।
3. बलवान् शुक्र मनुष्य को सुन्दर तथा राज्यमानी बनाता है।
4. यदि शुक्र निर्बल हो तो बहुधा धन का नाश हो, राज्य की ओर से तिरस्कृत हो, साले द्वारा धन का नाश पाए ।
कन्या लग्न में शुक्र महादशा का फल
यदि शुक्र बलवान हो तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में खूब धन देता है, भाग्य बढ़ाता है । परन्तु यह अवधि इस लग्न वाले को रोगी भी रखती है। ऐसे व्यक्ति को कुटुम्ब की सहायता से पांव पर खड़ा होने का यह समय होता है।
यदि शुक्र निर्बल और पीड़ित हो तो इस दशा भुक्ति में धन का नाश होता है । भाग्य को धक्का लगता है। स्त्री को कष्ट रहता है । कुटुम्ब वालों से अनबन रहती है । विद्या में असफलता मिलती है ।
शनि
1. शनि पंचम तथा षष्ठ का स्वामी है। शनि की मूल त्रिकोण राशि षष्ठ में पड़ने के कारण शनि कुछ अशुभ ही गिना जायेगा ।
2. यदि शनि बलवान् हो तो व्यक्ति की कई लड़कियां होती हैं। इसके पुत्र की वाणी कर्कश होती है। यदि शनि निर्बल हो तो पुत्र कार्य में बाधा डालने वाला होता है।
3. यदि राहु भी छठे स्थान में हो तो शनि मनुष्य को दीर्घ रोगी बना देता है, विशेषतया यदि बुध भी निर्बल हो।
4. यदि शनि कर्क राशि में एकादश भाव में स्थित हो, तो अपनी दशा में धनादि शुभ फल देता है । क्योंकि शनि की मूल त्रिकोण राशि कुंभ छठे भाव में पड़ती है, अतः शनि बुरे भाव का स्वामी हुआ।
वह चूँकि छठे से छठे भाव में स्थित है और शत्रु राशि में भी इसलिए वह छठे भाव के लिए बुरा फल करेगा। जिसका अर्थ है विपरीत राजयोग की प्राप्ति अर्थात् शुभ फल की प्राप्ति, क्योंकि बुरों का पीड़ित होना सुखप्रद होता है ।
कन्या लग्न में शनि महादशा का फल
यदि शनि बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन देता है, परन्तु थोड़ा । शत्रु इस अवधि में नहीं होते। इस समय परिश्रम अधिक रहता है।
यदि शनि निर्बल और पीड़ित हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शनि दीर्घकालीन रोग देता है । सन्तान की ओर से शत्रुता का व्यवहार होता है, परन्तु धन की आय अच्छी रहती है ।
फलित रत्नाकर
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